ग्रहस्तु व्यापितं सर्व जगदेत्चराचरम।। यह चराचर जगत् ग्रहों से ही व्याप्त है। ग्रहों का असर मानव शरीर की उत्पत्ति में किस प्रकार कार्य करता है आईये इसी विषय पर जानने का प्रयत्न करें।
जैसा कि हम जानतें है कि मानव की उत्पत्ति माँ के गर्भ में करीब नौ महीनों व कुछ दिनों की यात्रा के उपरान्त होती है और इस जीव उत्पत्ति की यात्रा में सातों ग्रहों की भूमिका पूर्ण रूप से होती है। राहू-केतु छाया ग्रहों को छोड़कर।
गर्भधारण के प्रथम महीने पर आधिपत्य शुक्र ग्रह का होता है। उस महीने गर्भ में वीर्य में स्थित शुक्राणु, स्त्री के डिंबाण में अवस्थित रज से मिलकर अण्डे का रूप लेता है। ज्योतिष में वीर्य का नैसर्गिक कारक शुक्र ग्रह होता है।
इसी प्रकार द्वितीय महीने पर मंगल ग्रह का आधिपत्य होता है। मंगल एक अग्नि तत्व ग्रह है जिसका कार्य अण्डे को माँस के पिण्ड में परिवर्तित करना होता है। अग्नि तत्व के कारण माता के शरीर में पित्त प्रकृत्ति स्वभाविक रूप से बढती है और गर्भस्थ महिलाओं को उल्टी, चक्कर व बेचैनी के लक्षण परिलक्षित होने लगते है।
इसी क्रम में बृहस्पति ग्रह तृतीय महीने पर अपना आधिपत्य ग्रहण करता है जिसके फलस्वरूप वह मांस का लोथडा पुरुष और स्त्री लिंग के जीव के रूप में परिवर्तित होता है। चूंकी बृहस्पति ग्रह जल तत्व ग्रह है इसके परिणाम स्वरूप पित्त में कमी आती है और द्वितिय माह के लक्षण समाप्त हो एक अन्दरूनी खुशी का एहसास होता है और गर्भस्थ महिला गर्भ को पूर्ण रूप से अनुभव करने लगती है।
माँस के पिण्ड को आकार और आधार प्रदान करने के लिए हड्डियों का नैसर्गिक कारक सूर्य का आधिपत्य चतुर्थ मास में लक्षित होता है। उस माँस रूपी पिण्ड (जीव) के अन्दर हड्डियाँ बन जाती है और शरीर लगभग पूर्णता की ओर अग्रसर होने लगता है।
पंचम माह पर चन्द्रमा का आधिपत्य होता है और जैसा कि ज्योतिष में चन्द्रमा तरल पदार्थ, जल, रक्त प्रवाह इत्यादि का नैसर्गिक कारक होता है। इस माह में शरीर नसों, नाडियों व माँसपेशियों से परिपूर्ण हो जाता है।
ग्रहों की इस व्यवस्था के क्रम में छठे महीनें शनि का पूर्ण आधिपत्य गर्भस्थ शिशु पर होता है। शनि अपने नैसर्गिक कार्यकत्व के अनुरूप शिशु के शरीर में बाल उत्पन्न करता है साथ ही शिशु के शरीर का रंग गोरे, काले व साँवले का निर्धारण इसी माह शनि के द्वारा होता है।
सातवें महीनें गर्भस्थ शिशु पर बुध ग्रह का पूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। बुध बुद्धि का सामान्य कारक है और गर्भ में पल रहे शिशु को बुद्धि उपलब्ध करवाता है और गर्भस्थ शिशु पर माता के आचार विचार का प्रभाव पडना शुरू हो जाता है। अतः इन दिनों के बाद से माता की सोच, चिन्ता व आचरण आने वाले शिशु की बुद्धि का निर्माण करतें है। जैसा कि हम जानते है महाभारत काल में अभिमन्यु ने गर्भ में ही चक्रव्यूह तोडना सीख लिया था।
आंठवें महीने का आधिपत्य गर्भस्थ की माँ का लग्नेश होता है इस वजह से माँ का स्वास्थ्य का प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पूर्ण रूप से पडता है। आठवें महीने में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होती है। यदि आठवें महीनें में माँ का लग्नेश पीडित हो जाये तो गर्भपात की संभावना बढ जाती है और शिशु की मृत्यु तक हो सकती है। इसी वजह से सांतवें महीने का शिशु जन्म लेने पर बच सकता है परन्तु आठवें महीनें का शिशु यदि जन्म ले तो बचने की संभावना कम होती है।
नौवें महीनें का अधिपती होने का भार फिर से चन्द्रमा उठाता है और अपनी प्रकृत्ति के अनुसार गर्भ के अन्दर पेट में इतना पानी उत्पन्न करता है कि शिशु जिसमें तैर सके और आराम से जन्म ले सकने मे समर्थ हो जाए।
नौ महीने के बाद गर्भ पर सूर्य का आधिपत्य होता है तथा सूर्य अपनें स्वाभाविक अग्नि तत्व प्रभाव से पेट में गर्मी पैदा कर शिशु को माता के शरीर से अलग कर देता है। वह जिन माँसपेशियों से जकडा होता है, उनसे छूट जाता है और इस मृत्युलोक में जन्म प्राप्त करता है।
इस प्रकार मानव नौ महीनें में ग्रहों के असर को लेकर देह धारण करता है। जन्म के वक्त आसमान के ग्रहों की स्थिति अर्थात अपनी जन्मकुण्डली के अनुसार इन ग्रहों के द्वारा बनाये जीवन पथ पर अपने विवेक व कर्म द्वारा सुख व तकलीफ हासिल करता हुआ अग्रसर होता है।