उड्डीश तंत्र में महाज्ञानी रावण ने शिव व यक्षनी की साधना व सिद्धि के अनेक सूत्रों का वर्णन किया है। श्री रावण के ग्रन्थ से मंत्र शास्त्र के मुख्य नियम बताये गए है।
मन्त्र : नियत ध्वनियों के समूह को मंत्र कहते हैं। मंत्र वो विज्ञान या विद्या है, जिससे शक्ति का उदभव होता है। जहां मंत्र का विधि पूर्वक प्रयोग किया जाता है, वहां शक्तियों का निवास बना रहता है।
मंत्र-साधन द्वारा देवी-देवता तक वश में हो जाते हैं और मंत्र-योग की सिद्धि प्राप्त साधक को जगत् का समस्त वैभव सुलभ हो जाता है (ऐसा माना गया है)। इस भौतिक प्रधान युग में मानव सुख – सुविधा चाहता है और चमत्कार भी । किन्तु पाखंडियों ने छल व प्रपंच का जाल इस प्रकार फैलाया हुआ है कि केवल अपने साधारण स्वार्थ के लिए एक महान् विद्या के प्रति घृणा व अविश्वास पैदा करवा दिया।
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मंत्रों में शक्ति नहीं है या वे केवल वाग्जाल हैं। मंत्र आज भी विद्यमान हैं। लेकिन चाहिए सिद्ध महापुरुष की छत्रछाया में साधना करने वाला। श्रद्धा , भक्ति व विश्वास से की गई साधना कभी निष्फल नहीं होती।
मंत्रों से होने वाले लाभ अचानक ही किसी की कृपा से प्राप्त नहीं हो जाते वरन् उनके द्वारा जो वैज्ञानिक प्रक्रिया अपने आप मंत्रवत् होती हैं, उससे लाभ होता है। मंत्रों का अपना एक स्वतंत्र विधान है।
मंत्र – साधना में सामान्यतः जो विधि अपनाई जाती है, उसकी कुछ मूलभूत क्रियाओं का ध्यान रखता नितांत आवश्यक है, जो निम्न प्रकार से हैं –
स्थान पवित्र , शुद्ध व स्वच्छ होना चाहिए, जैसे – देव – स्थान, तीर्थ – भूमि, वन – पद्रेश, पर्वत या उच्च – स्थान, उपासनागृह और पवित्र नदी का तट! गृह में एकांत, शांत जहां अधिक आवाज न पहुंचे, ऐसा स्थान उपासना – गृह रखना चाहिए ।
प्रभु की प्रतिमा, चित्र या यंत्र को अपने सम्मुख रखना चाहिए ।
प्रत्येक मंत्र के जाप का समय व संख्या निर्धारित होती है , उसी के अनुरुप जप का प्रारंभ करना चाहिए और जितने समय तक जितनी संख्या में जप करना है , उसे विधि – पूर्वक करना चाहिए । समय में हेर – फेर कभी नहीं करनी चाहिए ।
वस्त्र धुला हुआ , स्वच्छ , शुद्ध व बिना सिला होना चाहिए ।
धूप – दीप अवश्य रखना चाहिए ।
जब तक मंत्र का जप या साधना चले , तब तक अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाने चाहिए । ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा नीतिमय जीवन बिताना चाहिए ।
मंत्रों के शब्दों का उच्चारण शुद्ध व बहुत धीमा होना चाहिए । सबसे अच्छा है कि ” मानस जप ” करें ।
मंत्र की उपासना , ध्यान , पूजन और जप श्रद्धा व विश्वासपूर्वक करना चाहिए ।
दिशा , काल , मुद्रा , आसन , वर्ण , पुष्प , माला , मंडल , पल्लव और दीपनादि प्रकार को जानकर ही किसी मंत्र की साधना प्रारंभ की जानी चाहिए ।
आवश्यक बाते
दिशा
निम्नलिखित प्रकार से दिशा का निर्धारण करना चाहिए –
वशीकरण कर्म उत्तराभिमुख होकर
आकर्षण कर्म दक्षिणाभिमुख होकर
स्तंभन कर्म पूर्वाभिमुख होका
शान्ति कर्म पश्चिमाभिमुख होकर
पौष्टिक कर्म नैऋत्याभिमुख होकर
मारण कर्म ईशानाभिमुख होकर
विद्वेषण कर्म आग्नेयाभिमुख होकर
उच्चाटन कर्म वायव्याभिमुख होकर
काल
काल यानी समय का निर्धारण भी निम्न प्रकार से करना चाहिए –
शांति कर्म अर्द्धरात्रि में
पौष्टिक कर्म प्रभात काल में
वशीकरण कर्म , दिन में बारह बजे से पहले ( पूर्वाह्न में
आकर्षण कर्म व दिन में बारह बजे से पहले ( पूर्वाह्न में )
स्तंभन कर्म दिन में बारह बजे से पहले ( पूर्वाह्न में
विद्वेषण कर्म मध्याह्न में
उच्चाटन कर्म दोपहर बाद अपराह्न में
मारण कर्म संध्याकाल में
मुद्रा
मुद्रा का निर्धारण इस प्रकार करें –
वशीकरण कर्म में सरोज मुद्रा
आकर्षण कर्म में अंकुश मुद्रा
स्तंभन कर्म में शंख मुद्रा
शान्ति एवं पौष्टिक कर्म में ज्ञान मुद्रा
मारण कर्म में वज्रासन मुद्रा
विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में पल्लव मुद्रा
आसन
निम्न प्रकार से आसन का निर्धारण करके कर्म करने चाहिए –
आकर्षण कर्म में दण्डासन
वशीकरण कर्म में स्वस्तिकासन
शांति एवं पौष्टिक कर्म में पदमासन
स्तंभन कर्म में वज्रासन
मारण कर्म में भद्रासन
विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में कुक्कुटासन
वर्ण
वर्णादि के द्वारा कर्म क विचार इस प्रकार करना चाहिए –
आकर्षण कर्म में उदय होते सूर्य के जैसा वर्ण
वशीकरण कर्म में रक्तवर्ण
स्तंभन कर्म में पीतवर्ण
शांति व पौष्टिक कर्म में चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण
विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में धूम्रवर्ण
मारण कर्ण में कृष्णवर्ण
तत्त्व
तत्त्वादि का विचार निम्न प्रकार से करें –
आकर्षण कर्म में अग्नि
वशीकरण व शांति कर्म में जल
स्तंभन व पौष्टिक कर्म में पृथ्वी
विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में वायु
मारण कर्म में व्योम
पुष्प
किस कर्म में कौन – सा पुष्प प्रयोजनीय है , इसे नीचे लिखे अनुसार जानना चाहिए –
स्तंभन कर्म में पीले
आकर्षण व वशीकरण कर्म में लाल
मारण , उच्चाटन व विद्वेषण कर्म में काले
शांति व पौष्टिक कर्म में श्वेत
माला
कर्म आदि में माला का व्यवहार निम्न प्रकार से करें –
आकर्षण व वशीकरण कर्म में मूंगे की माला
स्तंभन कर्म में सुवर्ण की माला
शांति कर्म में स्फटिक की माला
पौष्टिक कर्म में मोती की माला
विद्वेषण व उच्चाटन कर्म में पुत्रजीवक की माला
पल्लव
निम्नलिखित प्रकार से पल्लव समझना चाहिए –
आकर्षण में वौषट्
वशीकरण में वषट्
स्तंभन व मारण में घे घे
शांति एवं पौष्टिक कर्म में स्वाहा
विद्वेषण कर्म में हुं
उच्चाटन कर्म में फट्
मंडल
चक्र व साध्य का नाम इस प्रकार रखें –
वशीकरण कर्म में अग्निमंडल के मध्य
शांति व पौष्टिक कर्म में वरुणमंडल के मध्य
स्तंभन व मोहन कर्म में महेन्द्रमंडल के मध्य
उंगली
उंगली का निर्धारण इस प्रकार करें –
आकर्षण कर्म में कनिष्ठिका
शांति एवं पौष्टिक कर्म में मध्यमा
वशीकरण में अनामिका
स्तंभन , मारण , विद्वेषण एवं उच्चाटन कर्म में तर्जनी
पूजन
हस्त
आकर्षण , स्तंभन , शांति , पौष्टिक , मारण , विद्वेषण और उच्चाटन कर्म में दक्षिणहस्त तथा वशीकरण में वामहस्त का प्रयोग विहित है ।
दीपक व धूप
साधक को दायीं ओर दीपक और बायीं ओर धूप रखनी चाहिए ।
दीपन आदि प्रकार
दीपन से शांति कर्म , पल्लव से विद्वेषण कर्म , सम्पुट से वशीकरण कर्म , रोधन से बंधन , ग्रंथन से आकर्षण कर्म , विदर्भण से स्तंभन कर्म होता है । ये छह भेद प्रत्येक मंत्र में लागू होते हैं । उदाहरण के लिए –
मंत्र के प्रारंभ में नाम की स्थापना करें तो ” दीपन ” कहा जाता है ।
मंत्र के अंत में नाम की स्थापना करें तो ” पल्लव ” कहा जाता है ।
मंत्र के मध्य भाग में नामोल्लेख करें तो ” रोधन ” कहा जाता है ।
एक मंत्राक्षर दूसरा नामाक्षर , तीसरा मंत्राक्षर चौथा नामाक्षर ; इस प्रकार संकलित करें तो ” ग्रंथन ” कहा जाता है ।
मंत्र के दो अक्षरों के बाद एकेक नामाक्षर रखें तो उसे ” संकलित ” कहते हैं ।
ध्यान रखने योग्य बातें
किसी भी प्रयोग को करने से पहले मंत्र का जप किया जाता है , ताकि उस प्रयोग में सफलता प्राप्त हो । ऐसे समय में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक हैं –
स्वच्छ रहना तथा स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए ।
स्थान स्वच्छ व शुद्ध होना चाहिए । प्रतिदिन झाडू – पोंछा लगाकर उस स्थान को साफ रखना चाहिए ।
नीच व्यक्तियों के साथ वार्तालाप व उनका स्पर्श नहीं करना चाहिए । इससे दूषित परमाणुओं से पवित्रता असत्य नहीं बोलना चाहिए , क्रोध नहीं करना चाहिए तथा जहां तक हो सके मौन रहना चाहिए ।
चित्त स्थिर व स्वस्थ रखना चाहिए ।
भोजन सात्विक व हल्का करना चाहिए । वह भी एक ही समय लें तो अच्छा है ।
भोजन व जल ग्रहण करते समय मन को साफ रखना चाहिए ।
हजामत नहीं बनानी चाहिए तथा गरम पानी से स्नान नहीं करना चाहिए ।
किसी को शाप या आशीर्वाद नहीं देना चाहिए ।
किसी भी धर्मशास्त्र व व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए ।
काम , क्रोध , मोह , लोभ , मद , हिंसा , असत्य से जहां तक हो सके , बचना चाहिए ।
निर्भय होना चाहिए । मंत्र , देवता व गुरु की उपासना श्रद्धा – भक्ति तथा विश्वासपूर्वक करनी चाहिए ।
जप
जप तीन प्रकार के बतलाए हैं – १ . मानस जप , २ . उपांशु जप और ३ . वाचिक जप ।
१ . मानस जपः — जिस जप में मंत्र की अक्षर पंक्ति के एक वर्ण से दूसरे वर्ण , एक पद से दूसरे पद तथा शब्द और अर्थ का मन द्वारा बार – बार मात्र चिंतन होता हैं , उसे ‘ मानस जप ‘ कहते हैं । यह साधना की उच्च कोटि का जप कहलाता है ।
२ . उपांशु जपः — जिस जप में केवल जिह्वा हिलती है या इतने हल्के स्वर से जप होता है , जिसे कोई सुन न सके , उसे ‘ उपांशु जप ‘ कहा जाता है । यह मध्यम प्रकार का जप माना जाता है ।
३ . वाचिक जपः — जप करने वाला ऊंचे – नीचे स्वर से , स्पष्ट तथा अस्पष्ट पद व अक्षरों के साथ बोलकर मंत्र का जप करे , तो उसे ‘ वाचिक ‘ जप कहते हैं । प्रायः दो प्रकार के जप और भी बताए गए हैं – सगर्भ जप और अगर्भ जप । सगर्भ जप प्राणायाम के साथ किया जाता है और जप के प्रारंभ में व अंत में प्राणायाम किया जाए , उसे अगर्भ जप कहते हैं । इसमें प्राणायाम और जप एक – दूसरे के पूरक होते हैं ।
मंत्र – विशारदों का कथन है कि वाचिक जप एक गुना फल देता है , उपांशु जप सौ गुना फल देता है और मानस जप हजार गुना फल देता है । सगर्भ जप मानस जप से भी श्रेष्ठ है । मुख्यतया साधकों को उपांशु या मानस जप का ही अधिक प्रयास करना चाहिए ।
मंत्राधिराज कल्प में निम्न रुप से तेरह प्रकार के जप बतलाएं हैं –
रेचक – पूरक – कुंभा गुण त्रय स्थिरकृति स्मृति हक्का ।
नादो ध्यानं ध्येयैकत्वं तत्त्वं च जप भेदाः ॥
१ . रेचक जप , २ . पूरक जप , ३ . कुंभक जप , ४ . सात्त्विक जप , ५ . राजसिक जप , ६ . तामसिक जप , ७ . स्थिरकृति जप , ८ . स्मृति जप , ९ . हक्का जप , १० . नाद जप , ११ . ध्यान जप , १२ . ध्येयैक्य जप और १३ . तत्त्व जप ।
१ . रेचक जपः — नाक से श्वास बाहर निकालते हुए जो जप किया जाता है , वो ‘ रेचक जप ‘ कहलाता है ।
२ . पूरक जपः — नाक से श्वास को भीतर लेते हुए जो जप किया जाए , वो ‘ पूरक जप ‘ कहलाता है ।
३ . कुंभक जपः — श्वास को भीतर स्थिर करके जो जप किया जाए , वो ‘ कुंभक जप ‘ कहलाता है ।
४ . सात्त्विक जपः — शांति कर्म के निमित्त जो जप किया जाता है , वो ‘ सात्त्विक जप ‘ कहलाता है ।
५ . राजसिक जपः — वशीकरण आदि के लिए जो जप किया जाए , उसे ‘ राजसिक जप ‘ कहते हैं ।
६ . तामसिक जपः — उच्चाटन व मारण आदि के निमित्त जो जप किया जाए , वो ‘ तामसिक जप ‘ कहलाता है ।
७ . स्थिरकृति जपः — चलते हुए सामने विघ्न देखकर स्थिरतापूर्वक जो जप किया जाता है , उसे ‘ स्थिरकृति जप ‘ कहते हैं ।
८ . स्मृति जपः — दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर स्थिर कर मन में जो जप किया जाता है , उसे ‘ स्मृति जप ‘ कहते हैं ।
९ . हक्का जपः — श्वास लेते समय या बाहर निकालते समय हक्कार का विलक्षणतापूर्वक उच्चारण हो , उसे ‘ हक्का जप ‘ कहते हैं ।
१० . नाद जपः — जप करते समय भंवरे की आवाज की तरह अंतर में आवाज उठे , उसे ‘ नाद जप ‘ कहते हैं ।
११ . ध्यान जपः — मंत्र – पदों का वर्णादिपूर्वक ध्यान किया जाए , उसे ‘ ध्यान जप ‘ कहते हैं ।
१२ . ध्येयैक्य जपः — ध्याता व ध्येय की एकता वाले जप को ‘ ध्येयैक्य जप ‘ कहते हैं ।
१३ . तत्त्व जपः — पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश – इन पांच तत्त्वों के अनुसार जो जप किया जाए , वह ‘ तत्त्व जप ‘ कहलाता है ।
मंत्र – जप कहां करें ?
मंत्र – साधना अथवा प्रयोग के समय गृह में किया गया जप एक गुना फल देता है । पवित्र वन या उद्यान में किया गया जप हजार गुना फल देता है । पर्वत पर किया गया जप दस हजार गुना फल देता है । नदी पर किया गया जप एक लाख गुना फल प्रदान करता है एवं देवालय व उपाश्रय में किया गया जप एक करोड़ गुना फल देता है तथा भगवान ( शिव आदि ) के समक्ष किया गया जप अनंत गुना फल देता है ।
बैठने का आसन
पत्थर या शिला पर बिना कोई आसन बिछाए कभी जपादि नहीं करना चाहिए । सबसे अच्छा यह है कि काठ के पट्टे पर ऊनी वस्त्र , कंबल या मृगचर्म बिछाकर , उस पर बैठकर जप करना चाहिए । यदि काठ का पट्टा उपलब्ध न हो तो ऊनी वस्त्र या मृगचर्म बिछाकर एवं उस पर आसीन होकर प्रयोगात्मक मंत्र का जप करना चाहिए ।
मंत्र – विशारदों का कथन है कि बांस का आसन व्याधि व दरिद्रता देता है , पत्थर का आसन रोगकारक है , धरती का आसन दुःखों का अनुभव कराता है , काष्ठ का आसन दुर्भाग्य लाता है , तिनकों का आसन यश हा ह्लास करता है एवं पत्रों का आसन चित्त – विक्षेप कराता हैं ।
कपास , कंबल , व्याघ्र व मृगचर्म का आसन ज्ञान , सिद्धि व सौभाग्य प्राप्त कराता है । काले मृगचर्म का आसन ज्ञान व सिद्धि प्राप्त कराता है । व्याघ्रचर्म का आसन मोक्ष व लक्ष्मी प्राप्त कराता है । रेशम का आसन पुष्टि कराता है , कंबल का आसन दुःखनाश करता है तथा कई रंगों के कंबल का आसन सर्वार्थसिद्धि देने वाला होता हैं ।
मंत्र – जप कब करें ?
सूर्य एवं चंद्र ग्रहण – उत्तम काल कहलाता है ।
कर्क एवं मकर संक्रांति – मध्यम काल है ।
रविवार व अमावस्या – कनिष्ठ काल है ।
सात्विक मंत्रों के लिए किसी भी प्रकार का जप तीनों समय उत्तम माना गया है । यानी सूर्योदय के एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक , मध्याह्न के एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक व सूर्योदय से एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक ।
माला द्वारा जप
अनेक प्रयोगों में प्रयोग से पहले मंत्र – जप का विधान होता है , ताकि मंत्र की प्रभावशीलता से प्रयोग सफल हो । मंत्र – जप के समय हाथ कहां रखें , इसके बारे में महर्षियों का कथन है –
प्रातः काल नाभि पर हाथ रखकर जप करना चाहिए ।
मध्याह्न में हदय के आगे हाथ रखकर जप करना चाहिए ।
संध्याकाल में मुख के आगे हाथ रखकर जप करना चाहिए ।
यदि यह नहीं बन सके तो सामान्य रुप से हाथ को हदय के पास स्पर्श करते हुए माला से जप करना चाहिए ।
मंत्र – जप निषेध
नग्नावस्था में कभी भी जप नहीं करना चाहिए।
सिले हुए वस्त्र पहनकर जप नहीं करना चाहिए।
शरीर व हाथ अपवित्र हों तो जप नहीं करना चाहिए।
सिर के बाल खुले रखकर जप नहीं करना चाहिए।
आसन बिछाए बिना जप नहीं करना चाहिए।
बातें करते हुए जप नहीं करना चाहिए।
आधिक लोगों की उपस्थिति में प्रयोग के निमित्त जप नहीं करना चाहिए।
मस्तक ढके बिना जप नहीं करना चाहिए। –
अस्थिर चित्त से जप नहीं करना चाहिए।
रास्ते चलते व रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए।
भोजन करते व रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए।
निद्रा लेते समय भी जप नहीं करना चाहिए।
उल्टे – सीधे बैठकर या पांव पसारकर भी कभी जप नहीं करना चाहिए।
जप के समय छींक नहीं लेनी चाहिए, खंखारना नहीं चाहिए, थूकना नहीं चाहिए, नीचे के अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए व भयभीतावस्था में भी जप नहीं करना चाहिए।
अंधकारयुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।
अशुद्ध व अशुचियुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।
जप की गणना
जप की गणना के तीन प्रकार बतलाए गए हैं – वर्णमाला जप , अक्षमाला जप एवं कर माला जप ।
वर्णमाला जपः – वर्णमाला के अक्षरों के आधार पर जप – संख्या की गणना की जाए, उसे ‘ वर्णमाला जप ‘ कहते हैं ।
अक्षमाला जपः — मनकों की माला पर जो जप किया जाता है , उसे ‘ अक्षमाला जप ‘ कहते हैं । अक्षमाला में एक सौ आठ मनकों की माला को प्रधानता प्राप्त है और उसके पीछे भी व्यवस्थित वैज्ञानिक रहस्य है ।
जीवन जगत् और सृष्टि का प्राणाधार सूर्य है , जो कि एक मास में एक व्रुत्त पूरा कर लेता है । खगोलीय वृत्त 360 अंशों का निर्मित है और यदि इसकी कलाएं बनाई जाएं तो 360 को 60 से गुना करने पर प्राप्तांक = 21600 सिद्ध होती हैं।
चूंकि सूर्य छह मास तक उत्तरायन तथा शेष छह मास दक्षिणायन में रहता है , अतः एक वर्ष में दो अयन होने से यदि इन कलाओं के दो भाग करें तो एक भाग १०८०० का सिद्ध होता है ।
सामंजस्य हेतु अंतिम बिंदुओं से संख्या को मुक्त कर दें तो शुद्ध संख्या १०८ बच रहती हैं , इसलिए भारतीय धर्मग्रंथों में उत्तरायन सूर्य के समय सीधे तरीके से तथा दक्षिणायन सूर्य के समय दाएं – बाएं तरीके से एक सौ आठ मनको की माला फेरने का विधान है , जि से कार्यसिद्धि में सफलता मिलती है ।
भारतीय कालगति में एक दिन रात का परिणाम ६० घड़ी माना गया है , जिसके ६० * ६० = ३६०० पल तथा ३६०० * ६० = २१६०० विपल सिद्ध होते हैं । इस प्रकार इसके दो भाग करने से १०८०० विपल दिन के और इतने ही रात्रि के सिद्ध होते हैं और शुभकार्य में अहोरात्र का पूर्व भाग ( दिन को ) ही उत्तम माना गया है , जिसके विपल १०८०० हैं , अतः उस शुभ कर्म में १०८ मनकों की माला को प्रधानता देना तर्क संगत और वैज्ञानिक दृष्टि से उचित है ।
किसी भी मंत्र भी हजार अथवा लाख संख्या की गणना माला द्वारा ही संभव है । इसके लिए १०८ मनकों की माला सर्वश्रेष्ठ मानी गई है ।
करमाला जपः – हाथ की उंगलियों के पोरवों ( पर्वो ) पर जो जप किया जाता है , ‘ करमाला जप ‘ कहते हैं । नित्य सामान्यतः बिना माला के भी जप किया जा सकता है , किन्तु विशिष्ट कार्य या अनुष्ठान – प्रयोग से माला प्रयोग में लाई जाती है ।
माला – संबंधी सावधानी
माला फेरते समय निम्न सावधानियां बरतनी आवश्यक हैं –
माला सदा दाहिने हाथ में रखनी चाहिए ।
माला भूमि पर नहीं गिरनी चाहिए , उस पर धूल नहीं जमनी चाहिए ।
माला अंगूठे , मध्यमा व अनामिका से फेरना ठीक है । दूसरी उंगली तर्जनी से भूलकर भी माला नहीं फेरनी चाहिए ।
मनकों पर नाखून नहीं लगने चाहिए ।
माला में जो सुमेरु होता है , उसे लांघना नहीं चाहिए । यदि दुबारा माला फेरनी हो तो वापस माला बदलकर फेरें । मनके फिराते समय सुमेरु भूमि का कभी स्पर्श न करे । इस बात के प्रति सदा सावधान रहना चाहिए ।