ज्योतिष के किसी भी विषय को समझने के लिए जरुरी है कि सबसे पहले पंचांग को समझा जाये। पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण ये पांच होते हैं। इन पांच अंगों के मिलने से पंचांग कहलाता है।
ज्योतिष का अर्थ : ज्योति + ईश
आकाश में २ प्रकार की ज्योति हैं- स्वयं प्रकाशित- जैसे सूर्य, या अन्य तारे l
दूसरे से प्रकाशित- जैसे चन्द्र, सूर्य प्रकाश से प्रकाशित है। पृथ्वी तथा अन्य ग्रह मंगल, बृहस्पति आदि सूर्य से प्रकाशित हैं।
आकाश में तारा समूह, सूर्य के ग्रहों की स्थिति और गति का अध्ययन ज्योतिष है।
कैलेण्डर
काल गणना- किसी समय से अब तक कितना समय बीता उसको वर्ष, मास, दिन में गिनते हैं। इसे कैलेण्डर कहते हैं। संस्कृत में कलन = संख्या या गणना।
दिन- सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक का समय
मास- चन्द्र की पूर्णिमा से पूर्णिमा का समय
वर्ष- ऋतु आरम्भ से अगले ऋतु आरम्भ तक, सूर्य के चारो तरफ पृथ्वी की परिक्रमा
रोमन कैलेण्डर में दिन की संख्या मास के आरम्भ से १,२,३….३० या ३१ तक करते हैं (तिथि)। इसके साथ ७ ग्रहों के नाम पर ७ वार हैं-
रवि (सूर्य), सोम (चन्द्र), मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि
पञ्चाङ्ग
भारत में ५ प्रकार से दिन लिखते हैं।
अतः यहां की काल गणना को पञ्चाङ्ग (५ अंग) कहते हैं।
5 अंग हैं-
१. तिथि– चन्द्र का प्रकाश १५ दिन तक बढ़ता है। यह शुक्ल पक्ष है जिसमें १ से १५ तक तिथि है।
कृष्ण पक्ष में १५ दिनों तक चन्द्र का प्रकाश घतता है। इसमें भी १ से १५ तिथि हैं।
२. वार– ७ वार का वही क्रम ग्रहों के नाम पर।
३. नक्षत्र– चन्द्र २७.३ दिन में पृथ्वी का चक्कर लगाता है। १ दिन में आकाश के जितने भाग में चन्द्र रहता है, वह उसका नक्षत्र है। ३६० अंश के वृत्त को २७ भाग में बांटने पर १ नक्षत्र १३ १/३ अंश का है। चन्द्र जिस नक्षत्र में रहता है, वह उस दिन का नक्षत्र हुआ।
४. योग– चन्द्र तथा सूर्य की गति का योग कर नक्षत्र के बराबर दूरी तय करने का समय योग है। २७ योग २५ दिन में पूरा होते हैं।
५. करण– तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं।
१. तिथि—चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना है। इसका चन्द्र और सूर्य के अन्तरांशों के मान १२ अंशों का होने से एक होती है। जब अन्तर १८० अंशों का होता है उस समय को रिणमा कहते हैं जब यह अन्तर ० (शून्य) या ३६० अंशों का होता है। उस समय को अमावस कहते हैं। एक मास में ३० तिथि कहते हैं। १५ तिथि कृष्ण पक्ष व १५ तिथि शुक्ल पक्ष में १, प्रतिपदा, २ द्वितीया, ३ तृतीया, ४ चतुर्थी, ५ पंचमी, ६ षष्ठी, ७ सप्तमी, ८ अष्टमी, ९ नवमी, १० दसमी, ११ एकादशी, १२ द्वादशी, १३ त्रयोदशी, १४ चतुर्दशी, १५ पूर्णिमा, यह शुक्ल पक्ष कहलाता है। कृष्ण पक्ष में १४ तिथि उपरोक्त नाम वाली ही होती है परन्तु अन्तिम तिथि पूर्णिमा के स्थान पर इसे अमावस्या नाम से जाना जाता है। प्रत्येक तिथि के स्वामी अलग-अलग होते हैं, जिनका क्रम निम्न प्रकार है—
तिथि | प्रतिपदा | द्वितीया | तृतीया | चतुर्थी | पंचमी | षष्ठी | सप्तमी | अष्टमी | नवमी | दसमी | एकादशी | द्वादशी | त्रयोदशी | चतुर्दशी | पूर्णिमाचन्द्र |
स्वामी | अग्नि | ब्रह्मा | गणेश | गौरी | सर्प | कार्तिकेय | सूर्य | शिव | दुर्गा | यम | विषवेदेव | विष्णु | कामदेव | शिव | अमावस पित्तर |
(१) नंदा | (२) भद्रा | (३) जया | (४) रिक्ता | (५)पूर्णा |
१-६-११ | २-७-१२ | ३-८-१३ | ४-९-१४ | ५-१०-१५-३०,अ . |
रवि | सोम | मंगल | बुध | गुरु | शुक्र | शनि |
…………. | …………. | ३-८-११ जया | २-७-१२ भद्रा | ५-१०-१५ पूर्णा | १-६-११ नंदा | ४-९-१४ रिक्ता |
रवि | सोम | मंगल | बुध | गुरु | शुक्र | शनि |
नंदा १-६-११ | भद्रा २-७-१२ | नंदा १-६-११ | जया ३-८-१३ | रिक्ता ४-९-१४ | भद्रा २-७-१२ | पूर्णा ५-१०-१५ |
१. शुद्ध तिथि—जिस तिथि में एक बार सूर्योदय होता है उसे शुद्ध तिथि कहते हैं।
२. क्षय तिथि— जिस तिथि में सूर्योदय नहीं हो उसे क्षय तिथि कहते हैं।
३. अधिक तिथि— जिस तिथि में दो बार सूर्योदय होता है अधिक तिथि (वृद्धि तिथि) कहते हैं।
४. गण्डात तिथि—(५-१०-१५) पूर्णा तिथि समाप्ति व (१-६-११) नंदा तिथि के प्रारम्भ समय (सन्धि) को गण्डांत तिथि कहते हैं। इन दोनों तिथि के २४-२४ मिनट (कुल ४८ मिनट) को गण्डांत समय रहता है।
५. पक्षरन्ध्र तिथि—४-६-८-९-१२-१४ यह तिथियाँ पक्षरन्ध्र कहलाती है।
६. दग्धा, विष और हुताशन संज्ञक तिथियाँ—इन नाम अनुसार तिथियों में काम करने से विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।-चक्र नीचे है।
वर | रवि | सोम | मंगल | बुध | गुरु | शुक्र | शनि |
दग्ता संज्ञक | १२ | ११ | ५ | ३ | ६ | ८ | ९ |
विष संज्ञक | ४ | ६ | ७ | २ | ८ | ९ | ७ |
हुताशन संज्ञक | १२ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
७. मास शून्य तिथियों—चैत्र में दोनों पक्षों की अष्टमी व नवमी, बैशाख में दोनों पक्षों की द्वादशी, ज्येष्ठ में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी व शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी, आषाढ में कृष्ण की षष्ठी व शुक्ल की सप्तमी, श्रावण में दोनों पक्षों की द्वितीया व तृतीया, भाद्रपद के दोनों पक्षों की प्रतिपदा व द्वितीया, आश्विन में दोनों पक्षों की दशमी व एकादशी, कार्तिकेय में कृष्ण की पंचमी व शुक्ला की चतुर्दशी, माघ में कृष्ण की पंचमी व शुक्ला की षष्ठी, फाल्गुन में कृष्ण पक्ष की चतुर्थी और शुक्ल पक्ष की तृतीया यह मास शून्य तिथि होती है। मास शून्य तिथियों में कार्य करने से सफलता प्राप्त नहीं होती।
एक सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक की कलावधि को वार कहते हैं। वार सात होते हैं। १. रविवार, २. सोमवार, ३. मंगलवार, ४. बुद्धवार, ५. गुरुवार, ६ शुक्रवार, ७. शनिवार सोम, बुध, गुरु, व शुक्र की शुभ और रवि, मंगल, शनिवार की अशुभ संज्ञा होती है। रविवार को स्थिर, सोमवार को चर, मंगल की उग्र, बुध की मिश्र, गुरुवार की लघु, शुक्र की मृदु और शनिवार की तीक्ष्ण संज्ञा होती है। जिस ग्रह के बार में जो कार्य करने के लिए बताया है। वह कार्य अन्य वारों में अभीष्ट वार की काल होरा भी करना चाहिए। जो कभी आगे बताऐंगे।
नक्षत्र ताराओं के समूह को नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र २७ होते हैं। सूक्ष्मता से जानने के लिए प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। ९ चरणों के मिलने से एक राशि बनती है। २७ नक्षत्रों के नाम—१. अश्विनी २. भरणी ३. कृत्तिका ४. रोहिणी ५. मृगशिरा ६. आद्र्रा ७. पुनर्वसु ८. पुष्य ९. अश्लेषा १०. मघा ११. पूर्वाफाल्गुनी १२. उत्तराफाल्गुनी १३. हस्त १४. चित्रा १५. स्वाती १६. विशाखा १७. अनुराधा १८. ज्येष्ठा १९. मूल २०. पूर्वाषाढ २१. उतराषाढ २२. श्रवण २३. घ्िनाष्ठा २४. शतभिषा २५. पूर्वाभद्रपद २६. उत्तराभाद्रपद २७. रेवती।
विशेष—२८ वां नक्षत्र अभिजित माना गया है। उत्तराषाढ़ की अंतिम १५ घटियाँ और श्रवण के प्रारम्भ की चार घटियाँ मिलाकर कुल १९ घटियाँ के मान वाला अभिजित नक्षत्र होता है। यह समस्त कार्यों में शुभ माना है।
नक्षत्रों के स्वामी २८ ही होते हैं। नक्षत्रों का फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए।
अश्विनी | भरणी | कार्तिका | रोहिणी | मृगशिरा | आद्र्रा | पुनर्वसु | पुष्य | अश्लेषा | मघा | पूर्वाफाल्गुनी | उत्तराफाल्गुनी | हस्त | चित्रा |
अश्विनी कुमार | काल | अग्नि | ब्रह्मा | चन्द्रमा | रुद्र | अदिति | बहस्पति | सर्प | थ्पतर | भग | अर्यमा | सूर्य | विश्वकर्मा |
स्वाती | विशाखा | अनुराधा | ज्येष्ठा | मूल | पूर्वाषाढ़ | उत्तराषाढ़ | श्रावण | घनिष्ठा | शतभिषा | पूर्वाभद्रपद | उत्तराभाद्रपद | रेवती | अभिजित |
पवन | शुक्रारिन | मित्र | इन्द्र | निऋति | जल | विश्वदेव | विष्णु | वसु | वरुण | अजिकपाद | अहिर्बुध्न्य | पूषा | ब्रह्मा |
1). स्थिर संज्ञक— रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर या ध्रुव संज्ञक है।
2). चल संज्ञक— पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्रों की चल या चर या चंचल संज्ञक है।
3). उग्र संज्ञक— भरणी, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों की उग्र (क्रूर) संज्ञक है।
4). मिश्र संज्ञक— कृत्तिका, विशाखा नक्षत्रों की मिश्र या साधारण संज्ञक हैं।
5). लघु संज्ञक— अश्विनी, पुष्य, हस्त, अभिजित नक्षत्र लघु या क्षिप्र संज्ञक हैं।
6). मृदु संज्ञक— मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा और रेवती की मृदु या मैत्र संज्ञक हैं।
7). तीक्ष्ण संज्ञक— आर्दा, अश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्रों की तीक्ष्ण या दारुण संज्ञक हैं।
8). अधोमुख संज्ञक— भरणी, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, मूल, पूर्वाषाढ़, पूर्वाभद्रपद नक्षत्र की अधोमुख संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों का प्रयोग खनन विधि के लिए किया जाता है ।
9).ऊर्ध्वमुख संज्ञक—आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र ऊर्ध्वमुख संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों का प्रयोग शिलान्यास करने में किया जाता है ।
10). तिर्यङ्मुख संज्ञक— अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, नक्षत्र तिर्यडं मुख संज्ञक हैं।
11). पंचक संज्ञक— घनिष्ठा के तीसरा चौथा चरण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्रों की पंचक संज्ञक हैं।
12). मूल संज्ञक— अश्विनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल, रेवती नक्षत्र मूल संज्ञक हैं। इन नक्षत्रों में बालक उत्पन्न होता है तो लगभग २७ दिन पश्चात् जब पुन: वही नक्षत्र आता है,
उसी दिन शान्ति करायी जाती है। इनमें ज्येष्ठा और गण्डांत मूल संज्ञक तथा अश्लेषा सर्प मूल संज्ञक हैं।
अन्धलोचन संज्ञक— रोहिणी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी विशाखा, पूर्वाषाढ़, घनिष्ठा, रेवती नक्षत्र अन्धलोचन संज्ञक हैं। इसमें चोरी हुई वस्तु शीघ्र मिलती हैं। वस्तु पूर्व दिशा की तरफ जाती है।
मन्दलोचन संज्ञक—अश्विनी, मृगशिरा, अश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ और शतभिषा नक्षत्र मंदलोचन या मंदाक्ष लोचन संज्ञक हैं। एक मास में चोरी हुई वस्तु प्रयत्न करने पर मिलती है। वस्तु पश्चिम दिशा की तरफ जाती है।
मध्यलोचन संज्ञक— भरणी, आद्र्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र मध्यलोचन या मध्यांक्ष लोचन संज्ञक हैं। इनमें चोरी हुई वस्तु का पता चलने पर भी मिलती नहीं। वस्तु दक्षिण दिशा में जाती है।
सुलोचन संज्ञक—कृत्तिका, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाती, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र सुलोचन या स्वाक्ष लोचन संज्ञक है। इनमें चोरी हुई वस्तु कभी नहीं मिलती तथा वस्तु उत्तर दिशा में जाती है।
दग्ध संज्ञक—वार और नक्षत्र के मेल से बनता है, इनमें कोई शुभ कार्य प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। रविवार में भरणी, सोमवार में चित्रा, मंगलवार में उत्तराषाढ़, बुधवार में घनिष्ठा, वृहस्पतिवार में उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार में ज्येष्ठा एवं शनिवार में रेवती नक्षत्र होने से दग्ध संज्ञक होते हैं।
मास शून्य संज्ञक—चैत्र में रोहिणी और अश्विनी, वैशाख में चित्रा और स्वाति, ज्येष्ठ में पुष्य और उत्तराषाढ़, आषाढ़ में पूर्वाफाल्गुनी और घनिष्ठा, श्रवण में उत्तराषाढ़ और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, आश्विन मेंपूर्वाभाद्रपद, कार्तिक में कृत्तिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौष में अश्विनी, आद्र्रा और हस्त, माघ में मूल श्रवण, फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा नक्षत्र मास शून्य नक्षत्र हैं।
विशेष—कार्यों की सिद्धि में नक्षत्रों की संज्ञाओं का फल प्राप्त होता है।
सूर्य चन्द्रमा के संयोग से योग बनता है, इसे ही योग कहते हैं। योग २७ होते हैं।
२७ योगों के नाम—१. विष्कुम्भ २. प्रीति ३. आयुष्मान ४. सौभाग्य ५. शोभन ६. अतिगण्ड ७. सुकर्मा
८.घृति९.शूल १०. गण्ड ११. वृद्धि १२. ध्रव १३. व्याघात १४. हर्षल १५. वङ्का १६. सिद्धि १७. व्यतीपात
१८.वरीयान१९.परिधि २०. शिव २१. सिद्ध २२. साध्य २३. शुभ २४. शुक्ल २५. ब्रह्म २६. ऐन्द्र २७. वैघृति।
योगों के स्वामी—विष्कुम्भ का स्वामी यम, प्रीति का विष्णु, आयुष्मान का चन्द्रमा, सौभाग्य का ब्रह्मा, शोभन का वृहस्पति, अतिगण्ड का चन्द्रमा, सुकर्मा का इन्द्र, घुति का जल, शूल का सर्प, गण्ड का अग्नि, वृद्धि का सूर्य, ध्रुव का भूमि, व्याघात का वायु, हर्षल का भंग, वङ्का का वरुण, सिद्धि का गणेश, व्यतीपात का रुद्र, वरीयान का कुबेर, परिधि का विश्वकर्मा, शिव का मित्र, सिद्ध का कार्तिकेय, साध्य का सावित्री, शुभ का लक्ष्मी, शुक्ल का पार्वती, ब्रह्मा का अश्विनी कुमार, ऐन्द्र का पित्तर, वैघृति की दिति हैं।
योगों का अशुभ समय—योगों का कुछ समय शुभ कार्य का प्रारम्भ करने के लिए र्विजत किया है। इन र्विजत समय में कार्य आरम्भ किया जाए तो कार्यों में बाधाएं आती हैं अत: छोड़कर ही कार्य प्रारम्भ करे।
विष्कुम्भयोगकीप्रथम३घण्टे, परिधि योग का पूर्वाद्र्ध, उत्तराद्र्ध शुभ, शूल योग की प्रथम २ घण्टे ४८ मिनट, गण्ड और अतिगण्ड की २ घण्टे २४ मिनट, व्याघात योग की ३ घण्टे १२ मिनट, हर्षल और वङ्का योग के ३ घण्टे ३६ मिनट, व्यतीपात और वैधृति योग सम्पूर्ण शुभ कार्यों में त्याज्य हैं। इन योगों के रहते इनमें इस समय को छोड़कर ही कार्य करें।
तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं अर्थात् एक तिथि में दो करण होते हैं। करणों के नाम—१. बव
२.बालव ३.कौलव ४.तैतिल ५.गर ६.वणिज्य ७.विष्टी (भद्रा) ८.शकुनि ९.चतुष्पाद १०.नाग ११.किंस्तुघन
चरसंज्ञककरण—बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज्य, विष्टी।
स्थिरसंज्ञक करण—शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुघन ।
करणों के स्वामी—बव का इन्द्र, बालव का ब्रह्मा, कौलव का मित्र, तैतिल का सूर्य, गर का पृथ्वी, वणिज्य का लक्ष्मी, विष्टी का यम, शकुनि का कलि, चतुष्पाद का रुद्र, नाग का सर्प, किंस्तुघन का वायु स्वामी होते हैं।
भद्रा : विष्टी करण का नाम ही भद्रा है, प्रत्येक पंचांग में भद्रा के आरम्भ और समाप्ति का समय दिया रहता है। भद्रा में प्रत्येक शुभ कार्य करना र्विजत है। भद्रा का वास भूमि, स्वर्ग व पाताल में होता है।
सिंह-वृश्चिक-कुम्भ-मीन राशिस्थ चन्द्रमा के होने पर भद्रावास भूमि पर होता है। मृत्यु दाता होता है। मेष-वृष-मिथुन-कर्क राशिस्थ चन्द्रमा के रहने पर स्वर्ग लोक में, कन्या-तुला-धनु-मकर राशिस्थ चन्द्रमा के रहने पर भद्रा वास पाताल में होता है। यह दोनों शुभ फलदायक होती हैं।
सूर्य जब एक राशि अर्थात् ३० अंश से आगे बढक़र दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उस गमन को संक्रान्ति कहते हैं। प्रथम राशि से दूसरी में प्रवेश के कारण उसका नाम दूसरी राशि के ऊपर रखा जाता है। जेसे कि सूर्य धनु राशि में है और मकर में प्रवेश करता है तो उसे मकर संक्रान्ति कहेंगे।
अधिक मास – जिस चान्द्र मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती है उसे अधिक मास कहते हैं। अधिक मास में पुन: दो पक्ष कृष्ण एवं शुक्ल होंगे। अत: प्रथम मास का कृष्ण पक्ष और दूसरे मास का शुल्क पक्ष ही शुद्ध माने जाते हैं। बीच के दो पक्ष दूसरे तथा तीसरे अशुद्ध पक्ष कहे जाते हैं।
उदाहरण के लिए किसी वर्ष श्रावण मास अधिक मास है तो पंचाग में प्रथम श्रावण कृष्ण पक्ष, प्रथम श्रावण शुक्ल पक्ष, द्वितीय श्रावण कृष्ण पक्ष, प्रथम श्रावण शुक्ल पक्ष, द्वितीय श्रावण कृष्ण पक्ष तथा द्वितीय श्रावण शुक्ल पक्ष इस प्रकार लिखा होगा। तो शुद्ध मास के लिए प्रथम श्रावण कृष्ण पक्ष तथा द्वितीय श्रावण शुक्ल पक्ष ही लिये जायेंगे। व्रत-उपवास आदि इन्हीं पक्षों की तिथियों में होंगे, शेष दोनों में नहीं।
३२ मास १६ दिन ४ घड़ी बीतने पर अधिक मास होता है। अर्थात् प्रत्येक तीसरे वर्ष अधिक मास होता है। और वर्ष में १३ मास हो जाते हैं। अधिक मास को मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं। चन्द्र वर्ष और सौर वष्ज्र्ञ के दिनों का अन्तर अधिक मास होने से बराबर हो जाता है।
क्षय मास – जिस चान्द्र मास के २ पक्षों में २ संक्राति होती है उसे क्षय मास कहते हैं। क्षय मास केवल कार्ति आदि ३ महीनों में ही होता है शेष्ज्ञ में नहीं। जिस वष्ज्र्ञ क्षय मास होगा उस वर्ष एक वष्ज्र्ञ में २ अधिक मास भी होते है। जिस सम्वत् में क्षय मास होता है उसके १२ वर्ष या १४१ वर्षों के बाद मास होना सम्भव हैं।
पक्ष – चन्द्र मास को १५-१५ दिन के दो भागों में विभाजित किया गया है। ये दोनों भाग पक्ष कहलाते हैं। एक को कृष्ण पक्ष तथा दूसरे को शुक्ल पक्ष कहते हैं। तिथियों दोनों में प्रतिपदा आदि १५-१५ होती हैं। कृष्ण पक्ष की पन्द्रहवीं तिथि को पूर्णिमा कहते हैं। और उसे १५ लिखते हैं। सामान्यतया वर्ष का प्रारम्भ शुक्ल पक्ष से ही करने का विधान है। जबकि देश में कहीं-कहीं कृष्ण पक्ष से भी वर्षारम्भ होता है।
१. स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) से-ऋतु वर्ष के अनुसार-विषुव वृत्त के उत्तर और दक्षिण ३-३ पथ १२, २०, २४ अंश पर थे जिनको सूर्य १-१ मास में पार करता था। उत्तर दिशा में ६ तथा दक्षिण दिशा में भी ६ मास। (ब्रह्माण्ड पुराण १/२२ आदि)
इसे पुरानी इथिओपियन बाइबिल में इनोक की पुस्तक के अध्याय ८२ में भी लिखा गया है।
२. ध्रुव-इनके मरने के समय २७३७६ ई.पू. में ध्रुव सम्वत्-जब उत्तरी ध्रुव पोलरिस (ध्रुव तारा) की दिशा में था।
३. क्रौञ्च सम्वत्-८१०० वर्ष बाद १९२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) का प्रभुत्व था (वायु पुराण, ९९/४१९) ।
४. कश्यप (१७५०० ई.पू.) भारत में आदित्य वर्ष-अदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम्-अदिति के नक्षत्र पुनर्वसु से पुराना वर्ष समाप्त, नया आरम्भ। आज भी इस समय पुरी में रथ यात्रा।
५. कार्त्तिकेय-१५८०० ई.पू.-उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया। धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा तथा सम्वत् का आरम्भ। अतः सम्वत् को वर्ष कहा गया। (महाभारत, वन पर्व २३०/८-१०)
६. वैवस्वत मनु-१३९०२ ई.पू.-चैत्र मास से वर्ष आरम्भ। वर्तमान युग व्यवस्था।
७. वैवस्वत यम-११,१७६ ई.पू. (क्रौञ्च के ८१०० वर्ष बाद)। इनके बाद जल प्रलय। अवेस्ता के जमशेद।
८. इक्ष्वाकु-१-११-८५७६ ई.पू. से। इनके पुत्र विकुक्षि को इराक में उकुसी कहा गया जिसके लेख ८४०० ई.पू. अनुमानित हैं।
९. परशुराम-६१७७ ई.पू. से कलम्ब (कोल्लम) सम्वत्।
१०. युधिष्ठिर काल के ४ पञ्चाङ्ग-(क) अभिषेक-१७-१२-३१३९ ई.पू. (इसके ५ दिन बाद उत्तरायण में भीष्म का देहान्त)
(ख) ३६ वर्ष बाद भगवान् कृष्ण के देहान्त से कलियुग १७-२-३१०२ उज्जैन मध्यरात्रि से। २ दिन २-२७-३० घंटे बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
(ग) जयाभ्युदय-६मास ११ दिन बाद परीक्षित अभिषेक २२-८-३१०२ ई.पू. से
(घ) लौकिक-ध्रुव के २४३०० वर्ष बाद युधिष्ठिर देहान्त से, कलि २५ वर्ष = ३०७६ ई.पू से कश्मीर में (राजतरंगिणी)
११. भटाब्द-आर्यभट-कलि ३६० = २७४२ ई.पू से।
१२. जैन युधिष्ठिर शक- काशी राजा पार्श्वनाथ का सन्यास-२६३४ ई.पू. (मगध अनुव्रत-१२वां बार्हद्रथ राजा)
१३. शिशुनाग शक- शिशुनाग देहान्त १९५४ ई.पू. से (बर्मा या म्याम्मार का कौजाद शक)
१४. नन्द शक- १६३४ ई.पू. महापद्मनन्द अभिषेक से। ७९९ वर्ष बाद खारावेल अभिषेक।
१५. शूद्रक शक- ७५६ ई.पू.-मालव गण आरम्भ
१६. चाहमान शक- ६१२ ई.पू. में (बृहत् संहिता १३/३)-असीरिया राजधानी निनेवे ध्वस्त।
१७. श्रीहर्ष शक- ४५६ ई.पू.-मालव गण का अन्त।
१८. विक्रम सम्वत्- उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य द्वारा ५७ ई.पू. से
१९. शालिवाहन शक- विक्रमादित्य के पौत्र द्वारा ७८ ई.से।
२०. कलचुरि या चेदि शक-२४६ ई.
२१. वलभी भंग (३१९ ई.) गुजरात के वलभी में परवर्त्ती गुप्त राजाओं का अन्त।
१. इनोक– इथिओपिया की पुरानी बाइबिल के भाग ३ इनोक के अध्याय ७२-८१ में। वर्ष के ४ भाग ९१-९१ दिनों के, उसके बाद १ दिन छुट्टी। ९१ दिन में विषुव के उत्तर या दक्षिण के ३-३ मार्ग पर १-१मास सूर्य। बाइबिल (जेनेसिस ५/२१-इनोक की आयु ३६५ वर्ष)
२. मिस्र– ३०-३० दिनों के १२ मास। अन्त में ५ दिन जोड़ते थे। भारत में १२ x ३० दिनों का वत्सर, उसके बाद पाञ्चरात्र, कभी कभी षडाह। सिरियस तारा (मिस्र में थोथ) के उदय से थोथ मास और वर्ष आरम्भ। १४६० वर्ष के बाद १ वर्ष जोड़ते थे।
३. सुमेरिया– चान्द्र सौर वर्ष में ३५४, ३५५, ३८३, ३८४ दिन। दो प्रकार से अधिक मास की गणना।
अष्टक-८ ऋतु वर्ष = २९२१.९४ दिन, ९९ चान्द्र मास ( ३ अधिक) = २९२३.५३ दिन।
३८३ ई.पू. से-मेटन चक्र-१९ सौर वर्ष = ६९३९.६० दिन, २३५ चान्द्र मास (७ अधिक) = ६९३९.६९ दिन।
४. यहूदी वर्ष-७/८-१०-३७६१ ई.पू. (रवि-सोम वार के बीच की मध्यरात्रि से) ११ बजे ११मिनट २० सेकण्ड से। यहूदी वर्ष ३८३१ (७१ ई.) में यहूदी राज्य नष्ट।
५. इरानी– (क) दारा (Darius)- ५२० ई.पू. से-३६५ दिनों के १२ सौर मास। १२० वर्ष के बाद ३० दिनों का अधिक मास।
(ख) तारीख-ए-जलाली-१०७४ ई. में सेल्जुक राजा जलालुद्दीन मलिक द्वारा- ३६५ दिनों के ३३ वर्षों के बाद ८ दिन अधिक।
(ग) पहलवी (तमिल का पल्लव-शक्तिशाली, पहलवान)- १९२० ई. में रजा शाह पहलवी द्वारा-पुराने नामों के साथ सौर वर्ष।
६. असीरिया में ७४७ ई.पू. में नबोनासिर (लवणासुर)- इसके दमन के लिये भारत में ७५६ ई.पू. में शूद्रक की अध्यक्षता में मालव-गण।
७. सेलुसिड-३१२ ई.पू.-सुमेरियन नकल पर ग्रीक सेनापति सेल्यूकस द्वारा।
८. जुलियन– रोमन राजा जुलियस सीजर द्वारा-उत्तर यूरोप में २ मास बर्फ से ढंके रहते थे अतः बाकी ३०४ दिनों के १० मास होते थे। नुमा पोम्पियस ने ६७३ ई.पू. में २ मास जोड़ कर ३५५ दिनों का वर्ष शुरु किया। जनवरी से वर्ष का अन्त तथा आरम्भ (जानुस देवी का दोनों तरफ मुंह-जैसे अदिति का या विक्रम सम्वत् का चैत्र मास)। फरवरी के बाद २ या ३ वर्ष पर २२ या २३ दिन का अधिक मास मरसिडोनियस जोड़ते थे। ४६ ई.पू. में जुलियस सीजर ने मिस्र से सम्पर्क होने के बाद उत्तरायण से सौर वर्ष आरम्भ करने का आदेश दिया। पर लोगों ने ७ दिन बाद जब विक्रम सम्वत् गत वर्ष १० का पौष मास आरम्भ हो रहा था, उस दिन से नया वर्ष शुरु किया (१-१-४५ ई.पू.)। मूल वर्ष आरम्भ तिथि को कृष्ण-मास (सबसे लम्बी रात) कहा गया जो आजकल क्रिस्मस है। प्रायः ४०० वर्ष बाद कौन्स्टैण्टाइन ने ईसा के काल्पनिक जन्म के अनुसार इसका आरम्भ ४५ वर्ष बाद से कर दिया। प्रतिवर्ष ३६५ दिन का होता था तथा ४ वर्ष में १ दिन अधिक था।
९. हिजरी वर्ष-१९-३-६२२ ई. से विक्रम वर्ष ६७९ के आरम्भ के साथ हिजरी वर्ष पैगम्बर मुहम्मद द्वारा आरम्भ हुआ। अरब में पञ्चांग गणना (कलन) करने वालों को कलमा कहते थे। इसी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ था। ६३२ ई. में उनके देहान्त तक ३ अधिक मास जोड़े गये। अन्तिम मास में हज के समय अधिक मास का फैसला होता था। पैगम्बर के देहान्त के बाद इसका निर्णय करने वाला कोई नहीं रहा और यह पद्धति बन्द हो गयी (अल बरूनी द्वारा-प्राचीन देशों की काल गणना)। इसकी गणना ब्रह्मगुप्त के ब्राह्म स्फुट सिद्धान्त पर आधारित थी अतः खलीफा अल-मन्सूर के समय इसका अरबी अनुवाद हुआ। ब्रह्म = अल-जबर (महान्), स्फुट सिद्धान्त = उल-मुकाबला। इसमें पहले गणित भाग था॥ अतः अल-जबर-उल-मुकाबला से बीजगणित का नाम अलजेब्रा हुआ।
१०. ग्रेगरी– १७५२ ई. में ब्रिटेन में ग्रेगरी ने जुलियन कैलेण्डर में संशोधन किया। ४ दिनों में लीप वर्ष (३६६ दिनका) जारी रहा, पर शताब्दी वर्षों में केवल उन्हीं शताब्दी वर्षों मॆं रहा जो ४०० से विभाजित हों। १ ई. से गणना में ११ दिन की अधिक गिनती होने के कारण ३ सितम्बर को १४ सितम्बर कहा गया।