अपना भविष्य जानने की अभिलाषा मनुष्य में प्राकृतिक एवं अनिवार्य हैं, यथा।
वन समाश्रिता येपि निर्ममा निष्परिग्रहा:।
अपिते परिपृच्छन्ति ज्योतिषां गति कोविदम्॥
“जो सर्वसंग परित्याग कर वन का आश्रय ले चुके हैं, ऐसे राग-द्वेष शून्य, निष्परिग्रह मुनजिन-संत-महात्मा भी ज्योतिष शास्त्र वेताओं से अपना भविष्य जानने के लिए उत्सुक रहते हैं, तब साधारण संसारी मनुष्यों की तो बात ही क्या है?”
कट्टर से कट्टर कर्मवादी के मन में भी अपने भविष्य को जानने की प्रबल उत्कंठा विद्यमान रहती है। इसी मनोवैज्ञानिक इच्छा के कारण ही ज्योतिश शास्त्र का विकास हुआ।
ज्योतिष को वेद का नेत्र माना गया है। अत: महत्वपूर्ण और उपयोगी है इसलिए सर्वप्रथम “ज्योतिष” का अर्थ करें तो हम पाएंगे कि इस शब्द की उत्पत्ति ‘ज्योति:’ शब्द से हुई है। ज्योति का अर्थ है- प्रकाश, द्युति, अग्निशिखा, अग्नि, सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र, आंख की पुतली का मध्य बिन्दु (जिससे देखा जाता है), दृष्टि, विष्णु और परमात्मा। अत: ज्योतिष से तात्पर्य आकाश में स्थित सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह एवं विभिन्न नक्षत्रों के मानव जीवन पर पडऩे वाले प्रभाव से हैं।
सिद्धान्त संहिता होरा रूपं स्कंधत्रयात्मकम्।
वेदस्य निर्मलं चक्षु: ज्योतिश्शास्त्रम कल्मषम्॥
(1) सिद्धान्त- यह एक प्रकार की खगोलिय गणित है। पंचाग का निर्माण इसी से सम्भव है। बोलचाल में इसे गणित ज्योतिष कहते हैं।
इस विषय में पांच सिद्धान्त प्रचलित है।
(i) सूर्य सिद्धान्त। (ii) शेमक (लोमेश) सिद्धान्त। (iii) पौलिश सिद्धान्त। (iv) वशिष्ठ सिद्धान्त। (v) पितामह सिद्धान्त।
(2) संहिता- ग्रहों का देश-विदेश पर प्रभाव, तेजी-मंदी, वर्षा, उल्कापात, संक्रांति आदि का फल इस शाखा के अन्तर्गत आता हैं।
(3) होरा- इसमें जन्म कुण्डली, दशा-अन्तर्दशा-गोचर आदि के फल का विशेष विचार होता है।
ज्योतिष शास्त्र का इतिहास-
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में उस समय की घटनाओं को तिथी व नक्षत्रों की स्थिति के उल्लेख द्वारा वर्णित किया गया है, इस प्रकार ज्योतिषीय आंकलन से हम उस काल का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण स्वरूप महाभारत काल के समय शनि पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र में बृहस्पति श्रावण नक्षत्र में, राहू उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में और मंगल अनुराधा नक्षत्र में था एवं एक ही मास में चन्द्रग्रहण व सूर्य ग्रहण दोनों थे। इस प्रकार हम अपने इतिहास का ठीक-ठाक समय ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इससे वह तारीख ईसा से 5561 वर्ष पूर्व 16 अक्टूबर को आती हैं।
ज्योतिष शास्त्र की उन्नति को हम मुख्य रूप से पांच कालों में विभक्त कर सकते हैं।
(1) वैदिक काल। (2) पौराणिक काल। (3) पाराशरी काल। (4) वाराह मिहिर काल। (5) आधुनिक काल।
1). वैदिक काल (ईसा से 23,750 वर्ष पूर्व) हमारे पूर्वजों की विरासत में ज्योतिषशास्त्र के सम्बन्ध में निम्न श्लोक मिलते हैं।
(अ) ऋग्र्वेद में – 36 (ब) यजुर्वेद में – 44 (स) अथर्ववेद में – 162 श्लोक
2). पौराणिक काल (ईसा से 8350 से 3000 वर्ष पूर्व) रामायण (ईसा से 5000 वर्ष पूर्व तक) इस काल में ज्योतिष में अत्यधिक उन्नति हुई लगभग 18 प्रवर्तकों ने इस ज्ञान के नियमोंको प्रतिपादित किया जो निम्न हैं।
(i) सूर्य (ii) पितामह (iii) वशिष्ठ (iv) अत्रि (v) पराशर (vi) कश्यप (vii) नारद (vii) गर्ग (ix) मारीच (x) मनु (xi) अंगिरा (xii) लोमाश (xiii) पौलिश (xiv) च्यवन (xv) व्यास (xvi) यौवन (xvii) भृगु (xviii) शौनक।
3). पाराशरीकाल (ईसा से 3000 वर्ष पूर्व से सन् 57 तक) अन्य सभ्यताओं में ज्योतिष शास्त्र सुमेरियन (ईसा से 5000 वर्ष से वर्ष से 2000 वर्ष पूर्व) (चन्द्रमा पर आधारित पंचाग, नक्षत्र मंडल का ज्ञान) बेबीलोनियन (ईसा से 3000 वर्ष पूर्व) सीरियन (ईसा से 1690 वर्ष से 60 वर्ष पूर्व) ग्रीक (ईसा से 1500 वर्ष से 200 वर्ष पूर्व)
पाराशर ऋषि :- वृद्ध पाराशर होरा शास्त्र के रचनाकार। जैमनी ऋषि :- जैमिनी ज्योतिष शास्त्र।
गर्ग :- गर्ग संहिता। सतयार्चा :- नाड़ी ज्योतिषशास्त्र।
4). वाराहमिहिर काल (ईसा से 57 वर्ष पूर्व से सन् 1900 तक) (कुछ विद्वान इनका काल सन् 500 ई. मानते हैं।) वाराह मिहिर राजा विक्रमादित्य के राजज्योतिषी थे इनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्न है।वृहत जातक, पंच सिद्धांतिका, योग यात्रा, विवेक पटल, दैवज्ञ वल्लभ
5). आधुनिक काल (सन् 1900 से अब तक)